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अना॑यतो॒ अनि॑बद्धः क॒थायं न्य॑ङ्ङुत्ता॒नोऽव॑ पद्यते॒ न। कया॑ याति स्व॒धया॒ को द॑दर्श दि॒वः स्क॒म्भः समृ॑तः पाति॒ नाक॑म् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anāyato anibaddhaḥ kathāyaṁ nyaṅṅ uttāno va padyate na | kayā yāti svadhayā ko dadarśa divaḥ skambhaḥ samṛtaḥ pāti nākam ||

पद पाठ

अना॑यतः। अनि॑ऽबद्धः। कथा॒। अ॒यम्। न्य॑ङ्। उ॒त्ता॒नः। अव॑। प॒द्य॒ते॒। न। कया॑। या॒ति॒। स्व॒धया॑। कः। द॒द॒र्श॒। दि॒वः। स्क॒म्भः। सम्ऽऋ॑तः। पा॒ति॒। नाक॑म् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:13» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्य्यमण्डल प्रश्नोत्तर पूर्वक विद्वानों के गुणों को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (अयम्) यह (अनायतः) इधर-उधर न जाता और समीप वर्त्तमान (अनिबद्धः) किसी के आकर्षण से नहीं बँधा (न्यङ्) जो नीचे को होता हुआ (उत्तानः) ऊपर स्थित (कथा) किस प्रकार से (न) नहीं (अव, पद्यते) नीचे आता और (कया) किस (स्वधया) अन्न आदि पदार्थों से युक्त पृथिवी के साथ (याति) चलता है, जो (दिवः) प्रकाश का (स्कम्भः) खम्भे के सदृश धारण करनेवाला (समृतः) उत्तम प्रकार सत्यस्वरूप (नाकम्) दुःखरहित व्यवहार की (पाति) रक्षा करता है, उसको (कः) कौन (ददर्श) देखता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वन् ! यह सूर्य्य अन्तरिक्ष के मध्य में स्थित हुआ क्यों नीचे नहीं गिरता है? किससे चलता है? और कैसे प्रकाश का धारण करनेवाला और सुखकारक होता है? इस प्रश्न का उत्तर-परमेश्वर ने स्थापित और धारण किया इससे नीचे नहीं गिरता है और अपने समीप वर्त्तमान भूगोलों के साथ अपनी कक्षा में चलता हुआ वर्त्तमान है और सम्पूर्ण समीप में वर्त्तमान पदार्थों के आकर्षण से धारणकर्त्ता और परमेश्वर की व्यवस्था से सुखकारक वर्त्तमान है, यह जानना चाहिये ॥५॥ इस सूक्त में सूर्य और विद्वानों के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥ यह तेरहवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्यमण्डलप्रश्नोत्तरपूर्वकविद्वद्गुणानाह ॥

अन्वय:

हे विद्वन्नयमनायतोऽनिबद्धो न्यङ्ङुत्तानः कथा नाऽवपद्यते कया स्वधया याति। यो दिवस्स्कम्भः समृतो नाकं पाति तं को ददर्श ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनायतः) इतस्ततोऽगच्छन्त्सन्निहितः (अनिबद्धः) न कस्याप्याकर्षेण निबद्धः (कथा) केन प्रकारेण (अयम्) (न्यङ्) यो न्यग्भूतस्सन् (उत्तानः) ऊर्ध्वं स्थितः (अव) (पद्यते) अवगच्छति (न) निषेधे (कया) (याति) गच्छति (स्वधया) अन्नादिपदार्थयुक्त्या पृथिव्या सह (कः) (ददर्श) पश्यति (दिवः) प्रकाशस्य (स्कम्भः) स्तम्भ इव धारकः [(समृतः)] सम्यक्सत्यस्वरूपः (पाति) (नाकम्) अविद्यमानदुःखं व्यवहारम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वन्नयं सूर्योऽन्तरिक्षमध्ये स्थितः कथमधो न पतति। केन गच्छति कथं प्रकाशस्य धर्त्ता सुखकारको भवतीति प्रश्नस्योत्तरं, परमेश्वरेण स्थापितो धृतो नाऽधः पतति स्वसन्निहितैर्भूगोलैः सह स्वकक्षायां गच्छन् वर्त्तते सर्वेषां सन्निहितानामाकर्षणेन धर्त्ता परमेश्वरस्य व्यवस्थया सुखकरो वर्त्तत इति वेदितव्यम् ॥५॥ अथ सूर्यविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥५॥ इति त्रयोदशं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वाना ! हा सूर्य अंतरिक्षात असून खाली का पडत नाही? कोण त्याला चालविते व कसा प्रकाशाचा धारणकर्ता असून सुखकारक असतो? या प्रश्नाचे उत्तर असे की, परमेश्वराने त्याला स्थापित केलेले असून धारण केलेले आहे. त्यामुळे तो खाली पडत नाही. आपल्याजवळ असलेल्या भूगोलाबरोबर आपल्या कक्षेत चालतो व समीप असलेल्या पदार्थांचा आकर्षणकर्ता व धारणकर्ता असून परमेश्वराच्या व्यवस्थेने सुखकारक असतो, हे जाणावे. ॥ ५ ॥